पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/११५

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रोहिणी देवी से विवाह श्ररे राम राम ! करना सा, फरने का नाम ले, उसी जीम में कोडे पडें कहा रोहिणी, पार्वती, कहा क्षुद्र मानव तथा उसके सन्तान! और हाय रे कुजा (कहा)चैगहिकसम्बन्ध अरे भाई ऐसातो विचार करना महा चान्हालत्व है। और लीजिए.-"दशवर्या भवेत् कन्या" इस लेखे मनुष्यों की कन्या एवं उनके बालकों की भगिनी हुई। कहते रोप थर्राते हैं, कौन बेटी यहिन से व्याह कर लेगा।

हां, "ततश्चौद्ध रजस्वला तिसके (दश वर्ष के) ऊपर जब रजस्वला होय (बारहवे तेरहवें वर्ष) तब व्याह के योग्य होगी। हां, इतना विचार रखो, रजस्खला का छूना तक पार्य-रीति के विरुद्ध है। इस वाक्य के न मानने से यह होगा कि बीच ही में अर्थात् दश वर्ष के लगभग होने से रजस्वला धर्म, जो मृष्टि क्रमानुसार पारद तेरह वर्ष में होता है, सो घीचही में अर्थात् ग्यारहें हो साढ़े ग्यारहें चप कूद पड़ेगा। इससे बिचारी कन्या की रजस्खला सना हो जायगी। इस खभाव विरुद्ध कर्मवालों के हक में भी काशीनाथजी ऊपर याले ग्लोक की पुष्टि करते है-"माता चैव पिता चैव ज्येष्ठ माना तथैव च ।" दयानन्द स्वामी (तथानुज) और जोडते हैं, सो भी ठीक है। व्याह के तमाशे छोटे लडके ही देखते हैं। परच हमारी राय लीजिए तो पुरोहितभी, क्योंकि पढ़े न समझे, अपने भ्रम में विचार यजमा से पाप परावं, और घर पन्या का जन्म नशा ! "ते सर्वे नरक यान्ति दृष्ट्वा कन्या रजस्वला"।

प्रय फहो थी काशीनाथ भट्टाचार्य का दोष है कि गप्पू. नाप भट्टाचार्य हिन्दुस्तानियों का गदहापन है।

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