तृतीय परिच्छेद।
सामाजिक अंश।
बाल्य-विवाह बिषयक एक चीज।
आर्यावर्तीय जना को सर्वथा अनिष्टकारक होने के कारण, वेद, शास्त्र, पुराण तो क्या, बाल्य-विवाह की विधि, आज्ञा वा प्रमाण आल्हा तक में नहीं है। शीघ्रबोध के जिन श्लोकों को प्रमाण मानके हिन्दू भाई इस घोर कुरीति पर फिदा हैं, जिनके लिए नई रोशनीवाले बिचारे काशीनाथ पर फटकेबाजी करते हैं, उनका ठीक २ अर्थ ही कोई नहीं विचारता, नहीं तो उनमें तो महा निषेध—बरच भयानक रीति से बाल्य विवाह का निषेध—ही है। देखिए साहब! पुत्र का नाम आत्मा है, और लोक में भी प्रसिद्ध है कि "भाई तुमको देख लेते है तो मानों साक्षात् तुम्हारे पिता ही को देख लेते हैं।" अर्थात् वेद और लोक दोनों के अनुसार पिता और पुत्र की अभिन्नता है।
अब शीघ्रबोध के वचनों पर ध्यान दीजिए—"अष्टवर्षा भवेद्गौरी नव वर्षा च रोहिणी" इत्यादि। आठ वर्ष की लडकी गौरी है, और गौरीसाक्षात् भगवान् शिवजी की अर्धागिनी जगत् की माता हैं, और नव वर्ष की लडकी रोहिणी है, जो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचद्रजी के बडे भाई श्रीदाऊजी (बलदेव) की माता हैं। इस नाते ससार की दादी हुई। भला कौन ऐसा तैसा दुष्ट नराधम राक्षस होगा जो श्रीमती पार्वती तथा