पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१२०

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होली है।

तुम्हारा सिर है ! यहा दरिद्र की आग के मारे होला (अथवा होरा भुना हुवा हरा चना) हो रहे हे इन्हें होली है,

अरे केसे मनहस हो? यरस २ का निवहार है, उसमें भी वही रोनो सूरत ! एक बार तो प्रसन्न हो कर बालो, होरी है !

अरे भाई हम पुराने समय के वगाली भी तो नहीं हैं कि ऐसे मित्रों की जबरदस्ती से होरी (हरि) योलके शांत हो जाते। हम तो वीसवीं शताब्दी के अभागे हिन्दुस्तानी हैं. जिन्हें कृषि, पाणिन्य, शिल्प सेवादि किसी में भी कुछ तत नहीं है। खेतों की उपज अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जगलों का कट जाना, रेलो और नहरों की वृद्धि इत्यादि ने मट्टी करदी है । जो कुछ उपजता भी है वह कटके सलियान में नहीं आने पाता, ऊपर ही ऊपर लद जाता है। रुजगार व्यौहार में कहीं कुछ देखी नहीं पडता । जिन याजारों में, अभी दस वर्ष भी नहीं हुए, कचन यरसता था वहा अर दूकाने भाय २ होती हैं । देशी कारीगरी को देश ही घाले नहीं पूछते । विशेषत जो छाती ठोंक २ ताली बजवा २ कागजों के तखते रग २ कर देशहित के गीत गाते फिरते हैं वह श्रार भी देशी वस्तु का व्यवहार करना अपनी शान से वईद समझते हैं। नौकरी बी० ए०, एम० ए०, पास करनेवालों को भी उचित रूप में मुशकिल से मिलती है। ऐसी दशा में हमें होली सूझती है कि दिवाली!

यह ठीक है। पर यह भी तो सोचो कि हम तुम वंशज किनके हैं। उन्हीं के न, जो किसी समय बसत. पचमी ही से-