पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१२१

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"आई माघ की पावै बूढी डोरिया नाचें। का उदाहरण बन जाते थे, पर जब इतनी सामर्थ्य न रही तय शिवरात्रि से होलिकोत्सव का प्रारंभ करने लगे। जय इसका भी निर्वाह कठिन हुआ तब फागुन सुदी अष्टमी से-

का नमू दिखलाने लगे पर उन्हीं शानदमय पुरुपों के वंश में होकर तुम ऐसे मुहर्रमी यने जाते हो कि आज निवहार के दिन भी आनन्द-बदन से होली का शब्द तक स्चारण नहीं करते। सच कहा, कहीं होली बाइबिल फ्रीहया लगने से हिन्दूपन को सलीर पर तो नहीं चढा दिया ?

तुम्हें आज क्या सूझी है, जो अपने पगए सभी पर मुंह चला रहे होली वाइयिल अन्य धर्म का प्रथ है, उसके माननेवाले विचारे पहिले ही से तुम्हारे साथ का भीतरी- बाहिरी सम्बन्ध छोड देते हैं । पहिली उमग में कुछ दिन तुम्हारे मत पर कुछ चोट चला भी दिया करते थे, पर भर परमां से वह चर्चा मी न होने के यरायर हो गई है। फिर, उन छुटे हुए गाइयों पर क्यों बौछार फरते हो? ऐमी ही सहास लगी हो तो उनसे जा भिडो जो अभी तुम्हारे ही कहलाते हैं, तुम्हारे हो साथ रोटी बेटी का ब्यौहार रयते दे, तुम्हारे ही दो चार मान्य ग्रन्थों के माननेवाले यनते हैं, पर तुम्हारे ही देवता पितर इत्यादि की निन्दा कर करके तुम्हें चिढाने ही में अपना धर्म और अपने दशकी उन्नति समझते है।

अरे राम राम पर्व के दिन कौन चरचा चलाते हो। हम तो जाते थे तुम्ही मनास हो, पर तुम्हारे पास बैठे सो भी नसूढिया हो जाय । परे पापा दुनियाभर का बोझा