अभी यह लोग बहुत से जीते हैं जो सन्५७ के यलवे के दस पांच वर्ष पहिले का हाल अपनी भाखों देखा बतलाते हैं, और उनमें से अधिकांश लोग ऐसे हैं, जिनकी बातें विश्वास करने के योग्य हैं। पर इस घर्तमान काल के लोगों को घे बातें बहुधा कहानी सी जान पडती है, क्योंकि उस जमाने से और इस जमाने से इतना फर्क है कि घुड्ढे लोग उसे सतयुग कहते हैं, और इसे कलियुग मानते हैं। हमारे एक वृद्ध मित्र • का कथन है कि भैया तुम्हीं लोग कहो कि इन दिनों देश की दशा सुधरने लगी, पर हमारी समझमें सिवाय इसके कि तुम्हें यातें बनाने का अधिक अभ्यास हो गया, और अठए दसए दिन थोडे से नौसिखियों को इकट्ठा करके आपस की घकयास निकाल डालते हौ यह पाते तो वेशक हमारी जवानी मेंनी, पर जो आनन्द हमने भोगा है वह तुम्हें सपने में भी दुर्लभ है। तुमो देखा होगा कि अोमर बनियों के यहा व्याह में बरातियों को जो सोया (भोजन-सामग्री) दिया जाता है उसमें धेला कौडी घी के लिए देते हैं। इस बात को तुम लालच अथवा दरिद्रता समझ के हसते होगे, पर हम सौगध मा के फाइते है कि हमारी जवानी में धेले का घी एक प्राइमी के लिए पहुन होता था। यह प्रत्यक्ष देप लो कि एम में श्रय भी पद यल और पौरुष है कि तुम्हें हम कुछ नहीं समझते। इसका कारण यही है कि हमने १- या २० रुपये मन घी और रुपये का २२ तथा २० सेर दूध ऐसा पाया है जैसा तुम्हें डेउढे दो दामों पर मी मिराना कठिन है। भैया यह उसी पिलाई-पिलाई का फल है कि हम साठा सो पाठा घने है।
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