करे तो भी तुम में यह लक्षण नहीं है कि तुम्हारा घूता बना रहे।
बल की रक्षा के सिया धन का यह हास था कि धागग्मज की असी, लखनऊ की छोटें कनौज का गाढा, ढाके की मन मल इत्यादिदमारे कपडे ऐसे थे कि कम से कम यरस दिन तक तो टसकाए न सकते थे। यरच गरीव गुरवा के कपडे की यह दशा थी कि एक गाढ़े का थान ले लिया, दो वर्ष धोती पहिनी, फिर रंगा के रजाई यनमा ली। तीन चार वर्ष को फिर छुट्टी हुई । मला यह तो बताओ तुम्हारे लेकलाट और तंजेव के मारने के महीने चलते हैं? अभी परतनों पर गुमच्या की दगा है। अधिकतर देशी ही हैं जो टूट फूट जाने पर भी तारे पोतल के भाव विक ही जाते हैं। पर तुम्हारी फुबुद्धि ने फाच के गिलास और लंप आदि की भक्ति उपजाय दी है। जिनमें दाम तो दूने चौगुने लगते हैं, पर फूट जाने पर शायद पाच रुपये की लप एक रुपये को भीन वि फहातक फहें सय से तुच्छ जूना होता है, सो अमीर लोग तीन चार फा पहिनते थे और दूर जाने पर नौकरों को उठा देते थे। वे पहन पहना- फर रुपया बारह माने भर चादी उसमें से निकाल लेते थे। पर तुम्हारे पाच रपये के बूट में पतामोतो कितनी जरी होगी' कजगार की यह गतिथी कि हमारी देखी हुई यात हे कि लखनऊ, फर्रुसायाद, मिरजापूर श्रादि में कचन यरसता था। पर हाय आज धूल उडती है, और राम न करे, यही दाल कुछ दिन और रहा तो यह शहर के नाम से पुकारे जाने योग्य न रहेंगे। क्योंकि स्त्री का पति है पुरुष और पुरष का पति रज़गार है।
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