पंचत्व ले परमेश्वर सृष्टि-रचना करते है। पंचसम्प्रदाय में परमेश्वर की उपासना होती है । पचामृत से परमेश्वर की प्रतिमा का स्नान होता है। पच वर्ष तक के वालो का पर. मेश्वर इतना ममत्व रखते हैं कि उनके कर्तव्याकर्तव्य की ओर ध्यान न देके सदा सब प्रकार रक्षण किया करते हैं। पचेन्द्रिय के स्वामी को वश कर लेने से परमेश्वर सहज में चश हो सकते हैं। काम के पंचवाण को जगत् जय करने की, पचगव्य को अनेक पाप दरने की, पचप्राण को समस्त जीव- धारियों के सर्वकार्यसम्पादन की, पंचत्व (मृत्यु) को सारे झगडे मिटा देने की, पचरत्न को बडे बड़ो का जी ललचाने की सामर्थ्य परमेश्वर ने दे रक्खी है।
धर्म में पचसस्कार, तीर्थों में पचगगा और पंचकोसी, मुसलमानों में पच पतिव्रत आत्मा (पाक पेजतन) इत्यादि का गौरव देखके विश्वास होता है कि पच शब्द से परमेश्वर बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। इसी मूल पर हमारे नीति विदाम्पर पूर्वजो ने उपर्युक्त कहावत प्रसिद्ध की है। जिसमें सर्वसाधारण संसारी-व्यवहारी लोग (यदि परमेश्वर को मानते हों तो ) पच अर्थात् अनेक जनसमुदाय को परमेश्वर का प्रतिनिधि समझे। क्योंकि परमेश्वर निराकार निर्विकार होने के कारण न किसी को बाह्य चतु के द्वारा दिखाई देता है न कभी किसी ने उसे कोई फाम करते देखा, पर यह अनेक बुद्धिमानों का सिद्धान्त है कि जिस यातको पच कहते घा करते हैं पद भनेकांश में यथार्थ ही होती है। इसी से.-
"पाच पंच मिल कीजै काज, हारे जीते होय न खाग,"