पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१३५

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तथा––

"बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो,
जबाने ख़ल्क को नक्कारए ख़ुदा समझो।"

इत्यादि वचन पढ़े लिखों के हैं, और––'पांच पंच कै भाषा अमिट होती है', 'पंचन का बैर कै कै को तिष्ठा है' इत्यादि वाक्य साधारण लोगों के मुँह से बात २ पर निकलते रहते हैं। विचार के देखिए तो इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि––

'जब जेहि रघुपति करहिं जस, सो तस तेहि छिन होय'

की भांति पंच भी जिसको जैसा ठहरा देते हैं वह वैसा ही बन जाना है। आप चाहे जैसे बलवान, धनवान, विद्वान हों, पर यदि पंच की मरज़ी के खिलाफ चलिएगा तो अपने मन में चाहे जैसे बने बैठे रहिए, पर संसार से आपका वा आपसे संसार का कोई काम निकलना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो जायगा। हाँ, सब झगड़े छोड़कर विरक्त हो जाए तो और बात है। पर उस दशा में भी पंचभूतमय देह पर पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय का झंझट लगा ही रहेगा। इसी से कहते हैं कि पंच का पीछा पकड़े बिना किसी का निर्वाह नहीं क्योंकि पंच जो कुछ करते हैं, उसमें परमेश्वर का संसर्ग अवश्य रहता है, और परमेश्वर जो कुछ करता है वह पंच ही के द्वारा सिद्ध होता है। वरंच यह कहना भी अनुचित नहीं है कि पंच न होते तो परमेश्वर का कोई नाम भी न जानता। पृथ्वी पर के नदी, पर्वत, वृक्ष पशु, पक्षी और आकाश के सूर्य, चंद्र, ग्रह, उपग्रह नक्षत्रादि से परमेश्वर की महिमा विदित होती सही, पर किसको विदित होती? अकेले परमेश्वर ही अपनी महिमा लिए बैठे रहते।