श्री रामनौमी में भक्तों की वन आती है। व्रत केवल दुपहर तक का है, सो यों भी सब लोग दुपहर के इधर उधर खाते है। इससे कष्ट कुछ नहीं, और थानन्द का कहना ही क्या है, भगवान का जन्मदिन है । अनुभवी को अकथनीय आनन्द है। मतलवी को भी थाडे से शुभ फर्म में बहुत बड़ो आशा है।
वैशाप में कोई यडा पर्य नहीं होता, तो भी प्रात खान करनेवालों को मज़ा रहता है। भोर की ठडी हवा, सो भी वसत ऋतु की। रास्ते में यदि नीम का वृक्ष भी मिलगया तो सुगध से मस्त हो गए।
जेठ में दशहरा को गगापुत्रों की चादी है। गरमी के दिन ठहरे, बडा पर्व ठहरा; नहाने कौन न आवैगा, और कहा तक न पसीजेगा। श्रापाढी को चेला मुडनेवाले गोसाइयों के दिन फिरते हैं । गरीय से गरीव कुछ तो भेट घरेईगा। नाग पचमी में लडकियों का, (परमेश्वर उनके माता पिता को यनाए रक्खे) भादों में हलषष्टी को भुजरियों के भाग जगते हैं, जिसे देखो वही बहुरी २ कर रहा है।
हमारे पाठक फहते होंगे कि जन्माएमी भूल गए । पर हम जर आधी रात तक निर्जल रहने की याद दिला देंगे तब यकीन है कि वे भी सव आमोद-प्रमोद भूल जायगे । पाकि 'भूने भगति न होय गुपाला।'
कुआर का कहना ही क्या है। प्रोहित जी पित्रपक्षों भर सर के पिता पितामहादि के रिप्रिजेन्टेटिव (प्रतिनिधि) बने हुए नित्य गप्कुली खाते और गुलछरें उड़ाते हैं। फिर दुर्गा