नौरात्र, चैत्र और कुवार दोनों में बकरों पर। हमारे कनौ जिया भाई एव वगाली भाई उन विचारे अनवोल जीपों का गला काटने ही में धर्म समझते हैं।
पैशास्त्र, जेठ, असाढ़ वरी हैं, तो भी छोटी मछलियों को श्रासन पीडा है। जिसे देखो वही गगा जी को मय रहा है। सावन में विशेषत रक्षा-वधन के दिन फजूस महाजनों का मरन होता है, इनका फोडी कौडी पर जी निकलता है, पर ब्राह्मण-देवता मुसके बाधने की रस्सी की भाति राखी लिए छाती पर चढ़े, घर में घुसे आते हैं।
भादों में त्रियों की मरही होती है। हरतालिका पानी पीने में मी पाप चढ़ाती है ! बहुत सी बुढ़ियां तमाखू की थैली गाले पर धर के पड रहती हैं। सभी तो पतियता हई नहीं, दिनभर पति से साव २ करती है। कहीं पावें तो उस भूपि की दाढ़ी जलादें, जिसने यह व्रत निकाला है।
पित्रपक्ष में आर्यसमाजी कुढते २ सूख जाते होंगे । 'हाय हम सभा करते, लेक्चर देते मरते हैं, पर पोप जी देशमर का धन खाए जाते हैं।"
कार्तिक में, खासकर दिवाली में, मालसी लोगों का भरिए आता है । यहा मुंह में घुसे हुए मुच्छों के बाल हटाना मुशफिल है, यहा यह उठाव वह घर, यहा पुताब, पहा लिपाध, कहां की श्राफत!
अगहन पूस तो मनहस हुई है, विशेषतः घोवियों के कुदिन आते हैं। शायद ही फमी कोई एक आध दुपट्टा उपट्टा धुलवाता हो।