सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३३ )


वों को इन्होने अनुवाद में यहुत कुछ घटा बढ़ा दिया है। बात को इन्होंने भूमिका में स्वीकार किया है। ऐसा करने अगर कहीं की मृत कही मज़ा जाता रहा है तो कहीं कहीं, सक भी हो गया है। हम यह नहीं कह सकते कि यह नुवाद सब कहीं अच्छा ही हुआ है, पर इसका अधिक अंश धक, रसपान् और मनोहर है । इस अनुवाद का एक चूना देकर हम 'प्रेमदास' 'प्रतापहरि' से विदा होंगे-

चौथे अड्डू की यात है। करन प्रवास से वापस था गये । उनकी आशा से उनका शिष्य यह देखने के लिए पुटी चाहर निकला है कि कितनी रात वाकी है। इधर उधर आने पर उसे मालूम हुन्ना कि प्रात काल हो गया। तय वह होता है-

मात्येक्तोऽन्तशिखर पतिरोपीनामाविष्कृतोऽरुणपुर सर एकतोऽर्फ । नवोदयस्य युगपद्व्यसनोदयाम्या लोरो नियाम्यत इवात्मदशातरेषु ॥१॥ अन्तहिते शशिनि सैर कुमुद्दती मे दृष्टि न न यति सस्मरणीयशोमा । इटमवासननिता यवधाजनम्य दुपानि पूनमतिमानसुदु सहानि ॥ २ ॥

भावार्थ। जिन ओपधियों का सेवन पडे बडे भयङ्कर गों का-नहीं, मृत्यु तक का नाश कर सकता है उन्हीं का वामी, चन्द्रमा, एक तरफ, अस्त हो रहा है। दूसरी तरफ जसके जमायें। (राने) तक नहीं पेसे अनूरु सारथी को रथ के मागे रिठला कर सूर्य उदित हो रहा है। इस प्रकार एक ही साथ, दो तेजखी फ्टिो की सम्पदा और विपदाको दिखलाकर, नपनी अपनी अवस्था विशेप में, मनुष्यों का मानों नियमन केया जारहा है। अर्थात् सम्पत्ति और विपत्ति के समय किसी को भी हर्ष या विपाद करना उचित नहीं ॥१॥ जो कुमुदिनी अपनी प्रफुल्लित अवस्था में परम शोभामयी थी यही, चन्द्रमा