के अस्त हो जाने पर, मेरी आंखों को अच्छी नहीं लगती अब उसमें उसकी पहली शोभा नहीं रही। उस शोमा का श्र स्मरणमात्र शेप है, वह दिखाई नहीं देती। सच है, अपने प्रिय तम के प्रवासी होने के कारण उत्पन्न हुआ दुख भवलार्म को अत्यन्त दुःसह होता है।'
प्रतापनारायण ने इसका अनुवाद नहीं किया । सिप इसकी छाया लेकर उन्होंने जो कविता लिखी है वह इस प्रकार है-
फैसी कमनीय है प्रभा प्रभातफाल की। दिनकर करि इत उजाल, इत लहि ससि तेज नास, कै रहे दसाप्रकास मानो जग-झाल की। कुमुदिनि सोभा-विहीन, विरहिनि इच दुखित दीन, लागसि नैनन मलीन, देखत दिसि ताल की। दरम की कुटिया त्यागि, उठहि मोर जागि जागि, वेदिन ढिग लागि लागि ऐडनि नृगमाल की। इहि छिन लय धाधु सन्त, प्रेम-पूरि है इकन्त, सुमिरत महिमा अनन्त त्रिभुवन महिपाल की ॥१।
तो हमाह गुरु देव लो कर निवेदन जाय। नाथ होम बेला भई धरुन उदित दसाय ॥१॥ यदरि पिरिछ के पात पै श्रोस-बुद छमि छाय। कैसी गति मुहावनी धरुन उदय दुति पाय ॥४॥
साई निसापति जो गिरि मेरु पै पांव घरे यिचर निसि माहीं। त्यो तम ठोसहि नासत ससु मरी चिमालीरि धाम लौ नाही। Y