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पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/३७

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तेज गवाय गिरै नम ते सोउ भोर, समै एधि फै रवि पाही। या जग माहि बडेह वडेन की दीसत है थिर सपति माही ॥५॥

प्रतापनारायण का अनुवाद इसी तरह का है। इसीसे उसकी योग्यता का अन्दाजा पाठक कर सकते हैं। पिछला सवैया अपूर्व है, याद रखने लायक है, शिक्षा प्रहण करने लायक है।

लिख चुकने पर यह लेख हमने उनसज्जनों को दिखलाया जो प्रतापनारायण से अच्छी तरह परिचित हैं, और जो उनके पास हमेशा बैठा /उठा करते थे। उनकी राय से, जहां कहीं सशोधन की जरूरत समझी गई यहां हमने इसमें सशोधन कर दिया। इस पर भी यदि कोई यात भ्रम से ऐसी लिस गई हो जो ठोक न हो तो पाठक क्षमा करें। इस संशोधन कार्य में हमें अपने माननीय मित्रराय देवीप्रसाद, बी० ए०, घो० पल, से बहुत मदद मिली है। इसलिए हम उनके छत हैं।

"सरखती से द्रुधृत।
 

- -- इस देस को पुस्तक में सम्मिरिम कर लेने की अनुमति प्रदान परने के लिए हम इरियन मेस कोसमी फेभरया प्रारमीत हैं।

मकारक।