पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६ )


कि एक तो सघ कोई अपने मन से आप को (अपने तई), आप ही (आप्त ही) समझता है, और विचार कर देखिये तो आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता या तद्रूपता कहीं लेने भी नहीं जाने पडती, पर वाहा व्यवहार में अपने को आप कहने से यदि अहकार की गध समझिये तो यों समझ लीजिये कि जो काम अपने हाथ से किया जाता है, जोर जो बात अपनी समझ स्वीकार कर लेती है उसमें पूर्ण निश्चय। अवश्य ही हो जाता है, और उसी के विदित करने को हम और आप तथा यह एव वे कहते हैं कि 'हम आप कर लेंगे' अर्थात् कोई सदेह नहीं है कि हमसे यह कार्य सम्पादित हो जायगा, 'हम आप जानते हैं, अर्थात् दूसरे के बतलाने की आवश्य कता नहीं है. इत्यादि।

महाराष्ट्रीय भाषा के आपाजी भी उन्नीस विस्वा आप्त और आर्य के मिलने से इस रूप में हो गये हैं, तथा कोई माने या न माने, पर हम मना सकने का साहस रखते हैं कि अरवी के अब (पिता वोलने में अधा) और यूरोपीय भापायों के पापा (पिता) पोप (धर्म-पिता) आदि भी इसी आप से निकले हैं। हा, इसके समझने समझाने में भी जी को तो अग्रेजी के एयाट ( Abot महत) तो इसके हई हैं, क्योंकि उस वोली में हव और दीर्घ दोगो अशर का स्थानापन्न A है, और "वकार" को "वकार " से बदल लेना कई भाषाओं की चाल है। रही टी (T) सो वह तो "तकार"हुई है। फिर क्या न मान लीजियेगा कि पवाट साहब हमारे 'आप' वरच शुद्ध आप्त से बने हैं।

हमारे प्रान्त में बहुत से उस वश के बालक भी अपने पिता को अप्पा कहते हैं, उसे कोई २ लोग समझते