पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/४८

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निर्विकार कहलाने पर भी नाना प्रकार की लीला किया करता है वह धोखे का पुतला नहीं है तो क्या है ? हम आदर के मारे उसे भ्रम से रहित कहते हैं, पर जितके विषय में कोई निश्चयपूर्वक 'इदमित्था कही नहीं सकता, जिसका सारा भेद स्पष्ट रूप से कोई जान ही नहीं सकता वह निर्धम या भ्रमरहित फ्योंकर कहा जा सकता है। शुद्ध निभ्रंम वह कह खाता है, जिसके विषय में भ्रम का आरोप भी न हो सके, पर उसके तो अस्तित्व तक में नास्तिको को संदेह और आस्तिको को निश्चित ज्ञान का अभाव रहता है, फिर वह निर्धम कैसा? और जब वही भ्रम से पूर्ण है तब उसके चमायो ससार में भ्रम अर्थात् धोखे का अभाव कहा?

वेदान्ती लोग जगत् को मिथ्या भ्रम समझते हैं। यहा तक कि पक महात्मा ने किसी जिज्ञासु को भलीभाति समझा दिया था कि विश्व में जो कुछ है, और जो कुछ होता है, सय भ्रम है। किन्तु यह समझाने के कुछ ही दिन उपरान्त उनके किसी प्रिय व्यक्ति का प्राणांत हो गया जिसके शोक में वह फूट २ कर रोने लगे। इसपर शिष्य ने आश्चर्य में आकर पूछा कि आप तो सब बातों को भ्रमात्मक मानते हैं, फिर जान बूझ कर रोते क्यों हैं ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि रोना भी भ्रम ही है। सच हे ! भ्रमोत्पादक भ्रम स्वरूप भग वान के बनाये हुए भव (ससार) में जो कुछ है भ्रम ही है। जवतक भ्रम है तभी तक ससार है, घरच ससार का स्वामी भी तभी तक, है, फिर कुछ भी नहीं और कौन जाने हो तो हमें उसमे कोई काम नहीं। परमेश्वर सब का भरम बनाये रखे, इसी में सय कुछ है। जहा भरम खुल गया, वही लाख की भलमसी खाक में मिल जातो है। जो