लोग पूरे ब्रहामानी वनकर ससार फो सचमुच माया की कल्पना मान बैठते है वे अपनी भ्रमात्मक वृद्धि से चाहे अपने तुच्छ जीवन को माक्षात् सर्वेश्वर मान के सर्वथा सुग्वी हो जाने का धोखा माया पर, पर संसार के किसी काम के नहीं रह जाते हैं, वरच निरे अर्ता, अगोका बनने की उमग में अकर्मण्य और "नारिनारि सब एक है जम मेहरितस माय," इत्यादि मिद्धान्तों के मारे अपना तथा इसरों का जो अनिष्ट न कर ये वही थोडा है, क्योंकि लोक और परलोक का मज़ा भी धोखे ही में पड़े रहने से प्राप्त होता है। बहुत शान छाटना सत्यानाशी की जड़ है ! शान की दृष्टि से देखें तो आप का शरीर मलमुत्र, मास, मजादि घृणास्पद पदार्थों का विकारमान है, पर हम उसे प्रीति का पात्र समझते हैं, और दर्शन स्पर्शनादि से आनन्द लाभ करते हैं।
हमको वास्तव में इतनी जानकारी भी नहीं है।की हमारे शिर में क्तिने याल हे घा एक मिट्टी के गोले का सिरा कहा पर है, किंतु आप हमें बड़ा भारी वित और सुलेखक समझते हैं, तथा हमारी लेखनी या जिह्वा की कारीगरी देख २ कर सुख प्राप्त करते हैं । विचार कर देखिये तो धन-जा इत्यादि पर किसी का कोई स्वत्य नहीं है, इस क्षण हमारे काम आ रहे हैं, क्षण ही भर के उपरात न जाने किस के हाथ में चा किस दशा में पड के हमारे पक्ष में कैसे हो जाय, और मान भी लें कि इनका वियोग कभी ना होगा तो भी हमें क्या ? आखिर एक दिन मरना है, और 'मदि गई आएँ तब लागे फेहि काम की। पर यदि हम ऐसा समझकर सब से सम्बन्ध तोड दें तो सारी पूंजी गवाकर निरे मूर्ख कहलायें, स्त्री पुत्रादि का प्रबंधन करके उनका जीवन नष्ट करने का पाप मुडिया !