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पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/५९

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( २५)
दांत ।


इन दो अक्षर के शब्द तथा इन थोडी सी छोटी २ गियों में भी उम चतुर कारीगर ने वह फौशल दिखलाया है कि किस के मुह में दांत हैं जो पूरा २ वर्णन कर सके। ख की सारी शोभा और यावत् भोज्य पदार्थों का स्वादु नहीं पर निर्भर है । फवियों ने अलक, (जुल्फ़) भ्रू (भौं) था यरुणी आदि की छवि लिखने में बहुत २ रीति से पाल की साल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हीं की शोभा से सव की शोभा है। जब दांतों के यिना पुपला सा मुद निकल प्राता है, और चिबुक ( ठोढी) एव नासिका एक में मिल ताती हैं उस समय सारी सुघराई मट्टी में मिल जाती है। म-वाण की तीक्षणता, भ्रू-चाप की खिंचावट और अलक रजंगी का विप कुछ भी नहीं रहता।

कवियों ने इसकी उपमा हीरा, मोती, माणिफ से दी हे, ग्द बहुत ठोक है, यरच यह अवयव कथित वस्तुओं से मी अधिक मोल के हैं। यह यह अंग है जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एव काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है। खाने का मजा इन्हीं से है । इस यात का अनुभव यदि आपको न हो तो केसी बुड्ढे से पूछ देखिए, सिराय सतुश्रा चाटने के और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगोके गले के नीचे उतार देने के दुनियाभर की चीजों के लिए तरस ही के रह जाता होगा। रहे कविता के नौ रस, सो उनका दिग्दर्शनमात्र हमसे सुन लीजिए-

श्रङ्गार का तो कहना ही क्या है। ऐसा कवि शायद कोई ही हो जिसने सुन्दरियों की इन्तावली तथा उनके गोरेक्षेणी: निबन्ध- नवनीत