पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४७ )

पाला, (दुष्कर्मों से घृणा करनेवाला) और मनोरथों का पूर्ण करनेवाला है-

"ऐ जर तु सुदा नई योकिन यसुदा,
सन्तारो गुफरो काजी उत हाजाती।

एम भी कह सकते हैं कि मरने जीने, दुख-सुम्न और नर्क- स्वर्ग की एक कुजी भगवती लक्ष्मी (जरे अलेदुल्साम) के हाथ में भी है। लोग कहते हैं-"जन (स्त्री) जमीन और जर, सय झगडे का घर पर सच तो यह है कि जमीन तो जर ही का रूपान्लर है, और जन मी पेटमरों के अलवल हैं।

ठीक पूछो तो अनर्थ का मूल गही है। उस देश के विषय में हमारी सरकार ने इतनी बदनामी और मुडधुन सहके इस यात को सिरफर दिया कि रुपये के लिए बडेवडों की नियत 'डिग जाती है। बाप-बेटे, स्त्री-पुरूप,भाई भाई में महा विरोध हो जाना इत्यादि अनर्थ लोग सहज फर डालते हैं। फिर "पाप पडा ना भइया, सब से बडा रुपय्या" में क्या सन्देह है। सौ आर्य कर डालो, एफ आघ मदिर यनवा डालो या भोजन करा दो, कोई कुछ न कहेगा, वरच चाहे सो करो, मुह पर सव चुटकी ही धजायेंगे। फिर"सारे श्रीगुन छिपत हैं, लछमिनिया की ओट ", कौर का डर है। इस दो अक्षर के शब्द से लोग ऐसा गिधे हैं कि जिससे कह दो, सो ना, (सोमो मत) देखो पौसा सीक पार होता है, कोई तुम्हारा आश्रित है जो उर के मारे तुम्हारी आज्ञा मानेगा, पर कमी २ कोई २ आशा सुनके भीतरी भीतर पच जाता है, पर रात को कुछ काम देर तक करने के पीछे कह दीजिए-सोना, (सोरहोन) देपो कैसा मगन हो जायगा।

______