इस नाम की धावू अयोध्या प्रसाद जी खत्री मुजावरपुर, पासी छत पुस्तफ के दो भाग हमें हमारे सुहृद्दर श्रीधर पाठक द्वारा प्राप्त हुए हैं । लेखक महाशय की मनोगति तो सराहना-योग्य है, पर साथ ही असम्भव भी है। सिवाय फ़ारसी छंद और दो तीन चाल की लावनियों के और कोई छद उस में मनाया भी है तो ऐसा है जैसे किसी कोमसाँगी सुन्दरी को कोट बूट पहिनाना । हम अाधुनिक कवियों के शिरोमणि भारतेन्दुजी से घढके हिन्दी भाषा का आग्रही दूसरा न होगा। जय उन्हीं से यह न होसका तो दूसरोकायन निष्फल है । षास को चूसने में यदि रस का स्वाद मिल सके तो इस बनाने का परमेश्वर को क्या काम था । हा उरदू शब्द अधिक म भरके उरदू के ढग का सा मजा हम पा सकते हैं, और उस कविताभिमानियों से हम साहकार कह सकते हैं कि हमारे यहां फा काव्य भी कुछ कम नहीं है । यद्यपि कविता के लिए सरयू पुरी नहीं है, कवित्व-रसिकों को यह भी धारललना के हाषभाय का मजा दे जाती है, पर कवि होते हैं निरकुश उनकी बोली भी स्वच्छद ही रहने से अपना पूरा यल विना सकती है। जो लालित्य, जो माधुर्य, जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में है जो ब्रज भाषा युदेलखडी, वैसवारी मौर अपने दंग पर लाई गई संस्कृत व फारसी से बन गई है. जिसे चन्द्र से लेके हरिश्चन्द्र तक प्राय. सव कवियों ने आवर दिया है, उसका सा अमृतमय चित्तचालक रस खडी और बैठी घोलियों में ला सके, यह किसी कवि के बाप की मजाल नहीं । छोटे मोटे कपि हम भी है, और नागरी का कुछ वाया
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