पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/७९

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और धंधा करते हुए विधा नहीं सीख सकते १ परकौन सुनता है कि "व्यापारे वसते लक्ष्मी, यहां तो यायूगीरी के खाती भाई कुछ हो, अपनी चाल न छोड़ेंगे।

भगवति विद्ये तुम क्या फेवल सेवाही कराने को हो? हम तो सुनते हैं, तुम्हारे अधिकारी पूजनीय होते ये मस्तु, है सो अच्छा ही है। ममागे देश का पफ यही साक्षण क्यों रह सजाय फि सेयावृत्ति में भी याधा!न जाने हर सात खेप की मेप तैयार होती है, इन्हें इतनी नौकरी कहां से भावेगी। सरकार हमारी सलाह माने तो एक और कोई मिडिल पास की पख निकाल दे, जिसके पिना पहरागीरी, खानसामा- 'गीरी, भासकटगीरी आदि भी न मिलें । देखें तो कब तक मौकरी के पीछे सच्ची होते हैं। अरे वाया पदि कमाने ही पर कमर ांधी है तो घर का काम फाटता है? क्या आपके कारीगर और चार पैसे के मजूर दस पद्रह का महीना भीनहीं पैदा करते ? क्या ऐसों को धायुमो के से कपडे पहिनना मना है घरव देश का पडा हित इसी में है कि सैकडों सरह का काम सीखो। सार्टीफिकट लिये पगले २ मारे २ फिरने में पया धरा है, जो सरकार को हर साल इमतिहान अधिक कठिम फरने की चिन्ता में फंसाते हो! यावूगीरी कोई खणं- गीरी (सेनि का पहाड) नहीं है। पास होने पर भी सिफा. रिश चाहिये तव नौकरी मिलेगी, और यह कोई नियम नहीं है फि मिडिलवाले नौकरी से बरखास्त न होते हो वा उन्हें बिना फिक्र नौकरी मिल ही रहती हो। क्यों उतना ही धम भौर काम में नहीं करते

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