हमारे यहां की घोली का एक यह भी ढग है कि बहुत शादों के साथ आदि में अ, स और कमी कमी फ मिला देते हैं, जिससे एक निरर्थक शब्द बन जाता है, पर अच्छा लगदा है। रोटी प्रोटी, आदमी सादमी इत्यादि । इस रीति से का भापाधों के निरर्थक शब्द उन भाषाओं की कलई खोल देने पर हमारी नागरी-देवी की महिमा ही गाते हैं।
देखो न, अंगरेजी सगरेजी-"संगरेजा कहते हैं पत्थर का महीन टुकडा या फकड, उसका भी लघु रूप सगरेजी समभ लो, न मानो तो माधुर्य का गुण दूढ़ा, उसमें कहीं है ? टि. फ्यटय्यर का खर्च है। फारसी-आरसी, (आलसी) सैको पाथी छान डालो, उद्योग की शिक्षा बहुत कम, जोफ नात। धानी के मजमून लाखों ! अरयो-सरयी (मानी नदारद ) उरदू'सुरदू, (मानी नदारद ) पर 'पिणी जोड़ो तो हर दूपिणी हो जाय।
लेकिन संस्कृत अस्कृत-जिसमें ईश्वर की महिमा या पियों की उदार मुद्धि का अश हर तरह मौजूद । नागरी आगरी-आगर सद्व्यक्तियों का गुण अथवा सागरी। रा झूट न बुलावै तो इस दीन दशा में भी सब गुण का चोट सागर ही है। क्यों, कैसी कही?
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