पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ५३ )
मरे का मार शाह मदार।

चार वर्ष से हम देख रहे हैं कि देशी समाचारपत्रों में, विशेषत. हिन्दी के पत्रों में, जो कुछ धन लाभ होता है, विचारे सम्पादकों का जी ही जानता है । दुःख रोना मोति-प्रन्यों में पर्जित है, पर हम सम्पादक हैं, जर दूसरों के दुख-सुख, गुण भौगुन छाप डालते है तो अपने क्यों न कह? जो सम्पादक अखबार की आड में भिक्षा-भवन करते नहीं शरमाते, धनिकमात्र की झूठी प्रशसा से पत्र भरके सहायता के नाम से मांग जाचकर अपना घृणित जीवन भी निभाते धनकी तो हम कहते नहीं, पर जिन्हें अपनी लेखनी के बल का धर्मर है, और यह सिद्धान्त है कि “को देहीति पदत्स्वदग्ध अठरस्यार्थे मनस्वी पुमान",उनको राम ही से काम पडता है।

। 'रसिक पंच', 'भारतेन्दु', 'उचितघका' इत्यादि उत्तमोसम पर इसी घाटे की छून के मारे थोडे ही दिन घलके यद हो गए। हमारे 'घ्राक्षण' का यह हाल है दि हृदय का रक सुखा२ के मम तक बलाए जाते हैं। वर्ष भर में डेढसौ रुपया छप. पाई और राफ महसूल को चाहिए, और आमदनी इस वर्ष माढ़ मास में केवल २०१० की हुई है। चार वर्ष में दोसी का फर्जा दुषा है, उसे कुछ भुगता धुके हैं, १५०) भुगतना बाकी है। महीनों से तकादा करते हैं, ग्राहक सुनते ही नहीं। पाजे २महापुरुषों ने चार वरस में कौष्ठीनहीं दी, वाजे२५सदस पन्द्रह पन्द्रहरुपप यो लिए बैठे हैं। महीना दो महीना और देखते है, नहीं तोसयकी नामावली छापनी पडेगी। कहा तक मुला- हिज़े के पीछे भार सहे 1 प्रेसवाले जानते हैं, सम्पादक जमा- मार है। सम्पादक विचारा नादिदों की हत्या अपने सिर