पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/९७

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निर्याह होतारहे, यही बहुत है । विशेष कार्यों में व्यय करने के अवसर पर ,आज कस सैकडा पीछे दश जने भी ऐसे नहीं देख पहते जो चिंता से व्यस्त न हो जाते हो। इस पर भी हमारे हिन्दुस्तानी साहय के पिता ने सपूतजी के पढाने में मली चगी रोकड उठा दी है।

इधर आपोजर से स्कूल में पाव रक्खा है तभी से पिलायती वस्तुओं के व्यवहार फी लत डालके खर्च बढ़ा रक्खा है।यो लेफचर देने में चाहे जसी सुन लीजिए, पर बर्ताव देखिए तो पूरा सात समुद्र के पार ही का पाइएगा इस पर मी ऐसे लोगों की सख्या इस देश में अय घहुत नहीं है, जो धाए धूपे बिना अपना तथा कुटुम्ब का पालन कर सकते हो। इससे बाबू साहब को भी पेट के लिए कुछ करना पडता है, सो और कुछ न कर सकते हैं, न करने में अपनी पजत समझते हैं। अत हेर फेरफर नौकरी ही की शरण सुभाती है। वहा भी काले रंग के कारण इनकी विद्या बुद्धि फा उचित आदर नहीं। ऊपर से भूख के बिना भोजन करने में स्वास्थ्य नाश हो, चाने के पीछे झपट के चलने से रोगों की उत्पत्ति हो, तो हो, पर डिउटी पर ठीक समय मै न पहुचें तो रहे कदा?

बाजे २ महकमों में अवसर पडने पर न दिन छुट्टी न रात छुटी, पर छुट्टी का यत करें तो नौकरी ही से छुट्टी हो जाने का डर है। इस पर भी जो कहीं मालिक कडे मिजाज का हुवा तो और भी कोद में घाज है, पर उसकी झिडको आदि न पाएं तो रोटी ही कहां से साएँ ? यह छूते न भी हो तो भी नौकरी की अट कितनी? ऐसीपाते