पृष्ठ:निर्मला.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०३
आठवां परिच्छेद
 

निर्मला-आवेंगे क्यों नहीं? जाकर कह दे, खाना ठण्डा हुआ जाता है। दो ही चार कौर खा लें।

महरी--मैं यह सव कह के हार गई, नहीं आते।

निर्मला-- तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं?

महरी-नहीं बहू जी, यह तो मैने नहीं कहा; झूठ क्यों बोलूँ।

निर्मला-अच्छा तो जाकर यही कह। कह देना वह बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। तुम न खाओगे, तोवह रसोई उठा कर सो रहेंगी। मेरी भुङ्गी! न, अबकी और चली जा। (हंस कर) न आवें, तो गोद में उठा लाना।

भुङ्गी नाक-भौं सिकोड़ते गई; पर एक ही क्षण में आकर बोली-अरे बहू जी, वह तो रो रहे हैं। किसी ने कुछ कहा है क्या? निर्मला इस तरह चौंक कर उठी; और दो-तीन पग आगे चली, मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएँ में गिर पड़ने की खबर पाई। फिर वह ठिठक गई; और भुङ्गी से बोली-रो रहे हैं? तूने पूछा नहीं, क्यों रो रहे हैं?

भुङ्गी-नहीं वहू जी, यह तो मैंने नहीं पूछा, झूठ क्यों बोलूँ।

वह रो रहे हैं! इस निस्तब्ध रात्रि में अकेले बैठे हुए वह रो रहे हैं। माता की याद आई होगी। कैसे जाकर उन्हें समझाऊँ, हाय! कैसे समझाऊँ, यहाँ तो छींकते नाक कटती है! ईश्वर तुम साक्षी हो, अगर मैंने उन्हें भूले से भी कभी कुछ कहा हो, तो मेरे आगे आए। मैं क्या करूँ? वह दिल में समझते होंगे कि