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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१०५

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निर्मला
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भी जगह निकाल लेता। नौकरों की कोठरियों में तो जगह मिल जाती, बरामदे में पड़ रहने के लिए बहुत जगह मिल जाती ! खैर, अब भी सबेरा है । जब स्नेह नहीं रहा, तो केवल पेट भरने के लिए यहाँ रहना बेहयाई है। यह अब मेरा घर नहीं है । इसी घर में पैदा हुआ हूँ, यहीं खेला हूँ, पर यह अब मेरा नहीं ! पिता जी भी मेरे पिता नहीं हैं । मैं उनका पुत्र हूँ पर वह मेरे पिता नहीं हैं ! संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं। जहाँ स्नेह नहीं, वहाँ कुछ नहीं । हाय अम्माँ जी ! तुम कहाँ हो ?'

सोच कर मन्साराम रोने लगा । ज्यों-ज्यों मातृ-स्नेह की पूर्व-स्मृतियाँ जाग्रत होती थीं, उसके आँसू उमड़ते आते थे। वह कई बार अम्माँ-अम्माँ पुकार उठा, मानो वह खड़ी सुन रही है। मातहीनता के दुख का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ। वह 'आत्माभिमानी था, साहसी था; पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने को निराधार समझ रहा था।

रात के दस बजे गए थे। मुन्शी जी आज कहीं दावत खाने गए हुए थे। दो बार महरी मन्साराम को भोजन करने के लिए बुलानेआ चुकी थी। मन्साराम ने पिछली बार उससे मुँझला कर कह दिया था मुझे भूख नहीं है, कुछ न खाऊँगा । बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती है । इसलिए जब निर्मला ने उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा, तो वह न गई। बोली-बहू जी, वह मेरे बुलाने से न आवेंगे।