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निर्मला
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खाना खाने के लिए बुलाने आई थीं; और मैं उनके आग्रह पर जाने को तैयार भी हो गया था, उस वक्त बाबू जी को देखते ही उन्होंने जो कैंडा बदला वह क्या मैं कभी भूल सकता हूँ?

जियाराम- यही बात मेरी समझ में भी नहीं आती। अभी कल ही मैं यहाँ से गया तो लगी तुम्हारा हाल पूछने। मैंने कहा-वह तो कहते थे कि अब कभी इस घर में कदम न रखूंगा। मैंने कुछ झूठ तो कहा नहीं, तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था कि फूट-फूट कर रोने लगी। मैं दिल में बहुत पछताया कि कहाँ से कहाँ मैंने यह बात कह दी। बार-बार यही कहती थी, क्या वह मेरे कारण घर छोड़ देंगे? मुझसे इतने नाराज हैं? चले गए और मुझसे मिले तक नहीं! खाना तैयार था,खाने तक नहीं आए! हाय! मैं क्या बताऊँ, किस विपत्ति में हूँ! इतने में बाबू जी आ गए। बस, तुरन्त आँखें पोंछ कर मुस्कराती हुई उनके पास चली गई। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। आज मुझसे बड़ी मिन्नत की कि उनको साथ लेते आना। आज मैं तुम्हें खींच ले चलूँगा। दो दिन में वह कितनी दुबली हो गई हैं, तुम्हें यह देख कर उन पर दया आएगी। तो चलोगे न ?

मन्साराम ने कुछ जबाब न दिया। उसके पैर काँप रहे थे। जियाराम तो हाजिरी की घण्टी सुन कर भागा; पर वह बैञ्च पर लेट गया और इतनी लम्बी साँस ली, मानो बहुत देर से उसने साँस नहीं ली है। उसके मुख से दुस्सह वेदना में डूबे हुए यह शब्द निकले-हाय ईश्वर! इस नाम के सिवा उसे अब अपना