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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१३४

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दसवां परिच्छेद
 

मात्र भी भय नहा है। यह विनोद नहीं-उसकी आत्मा का करुण विलाप है। जब और सब लड़के सो गए, तो वह भी चारपाई पर लेटा, लेकिन उसे नींद नहीं आई। एक क्षण के बाद वह उठ बैठा; और अपनी सारी पुस्तकें बाँध कर सन्दूक में रख दी। जब मरना ही है तो पढ़ कर क्या होगा ? जिस जीवन में ऐसी-ऐसी वाधाएँ हैं ऐसी-ऐसी यातनाएँ हैं, उससे मृत्यु कहीं अच्छी!

यही सोचते-सोचते तड़का हो गया। तीन रात से वह एक क्षण भी न सोया था। इस वक्त वह उठा तो उसके पैर थर-थर कॉप रहे थे; और सिर में चक्कर सा आ रहा था। आँखें जल रही थीं; और शरीर के सारे अङ्ग शिथिल हो रहे थे। दिन चढ़ता जाता था; और उसमें इतनी शक्ति भी न थी कि उठ कर मुँह-हाथ धो डाले । एकाएक उसने भुगी को रूमाल में कुछ लिए हुए एक कहार के साथ आते देखा । उसका कलेजा सन हो गया। हाय ईश्वर ! वह आ गई ! अब क्या होगा ? भुङ्गी अकेले नहीं आई होगी, वग्धी ज़रूर बाहर खड़ी होगी। कहाँ तो उससे उठा न जाता था। कहाँ भुगी को देखते ही दौड़ा और घवराई हुई आवाज़ में बोला-अम्माँ जी भी आई हैं क्या रे ? जब मालूम हुआ कि अम्माँ जी नहीं आई, तब उसका चित्त शान्त हुया । भुङ्गी ने कहा-भैया ! तुम कल गए नहीं, वहू जी तुम्हारी राह देखती रह गई। उनसे क्यों रूठे हो भैया ? वह तो कहती हैं, मैंने उनकी कुछ भी शिकायत नहीं की है । मुझसे आज रोकर कहने