सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३९
दसवां परिच्छेद
 

पुत्र के लिए भी जगह न थी,इस दशा में भी,जबकि उसका जीवन सङ्कट में पड़ा हुआ था,कितनी विडम्बना है?

एक क्षण के बाद एकाएक मुन्शी जी के मन में प्रश्न उठा--कहीं मन्साराम उनके भावों को ताड़ तो नहीं गय ? इसीलिए तो उसे घर से घृणा नहीं हो गई! अगर ऐसा है,तो ग़ज़ब हो जायगा! उस अनर्थ की कल्पना ही से मुन्शी जी के रोएँ खड़े हो गए और कलेजा धक-धक करने लगा । हृदय में एक धक्का सा लगा। अगर इस ज्वर का यही कारण है, तो ईश्वर ही मालिक है। इस समय उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। वह आग जो उन्होंने अपने ठिदुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जलाई थी, अब उनके 'घर में लगी जा रही थी। इस करुणा, शोक, पश्चात्ताप और शङ्का से उनका चित्त घबरा उठा। उनके गुप्त रुदन की ध्वनि वाहर निकल सकती, तो सुनने वाले रो पड़ते ! उनके आँसू बाहर निकल सकते, तो उनका तार बध जाता ! उन्होंने पुत्र के वर्ण-हीन मुख:की ओर एक बार वात्सल्यपूर्ण नेत्रों से देखा, वेदना से विकल होकर उसे छाती से लगा लिया; और इतना रोए कि हिचकी बँध गई।

सामने अस्पताल का फाटक दिखाई दे रहा था !