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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१४६

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ग्यारहवाँ परिच्छेद
 


सर्वनाश करना मन्जूर था? उन्होंने सिर उठाकर एक बार निर्मला की सहास -- पर निश्चल मूर्ति देखी और अस्पताल चले गए। निर्मला की सहास-छवि ने उनका चित्त शान्त कर दिया था। आज कई दिनों के बाद उन्हें यह शान्ति मुयस्सर हुई थी। प्रेम-पीड़ित हृदय इस दशा में क्या इतना शान्त और अविचलित रह सकता है? नहीं,कभी नहीं! हृदय की चोट भाव-कौशल से नहीं छिपाई जा सकती। अपने चित्त की दुर्बलता पर इस समय उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। उन्होंने अकारण ही सन्देह को हृदय में स्थान देकर इतना अनर्थ किया। मन्साराम की ओर से भी उनका मन निःशङ्क हो गया। हॉ,उसकी जगह अब एक नई शङ्का उत्पन्न हो गई। क्या मन्साराम भाँप तो नहीं गया? क्या भाँप कर ही तो घर आने से इन्कार नहीं कर रहा है? अगर वह भॉप गया है,तो महान् अनर्थ हो जायगा। उसकी कल्पना ही से उनका मन दहल उठा। उनकी देह की सारी हड्डियाँ मानो इस हाहाकार पर पानी डालने के लिए व्याकुल हो उठी! उन्होंने कोचवान से घोड़े को तेज़ चलाने को कहा। आज कई दिनों के बाद उनके हृदयमण्डल पर छाया हुआ सघन-घन फट गया था; और प्रकाश की लहरें अन्दर से निकलने के लिये व्यग्र हो रही थीं। उन्होंने बाहर सिर निकाल कर देखा, कोचवान सो तो नहीं रहा है। घोड़े की चाल उन्हें इतनी मन्द कभी न मालूम हुई थी।

अस्पताल पहुँच कर वह लपके हुए मन्साराम के पास गए। देखा तो डॉक्टर साहब उसके सामने चिन्ता में मग्न खड़े थे।