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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१४७

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निर्मला
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मुन्शी जी के हाथ-पाँव फूल गए। मुँह से शब्द न निकल सका। भरभराई हुई आवाज में बड़ी मुश्किल से बोले -- क्या हाल है, डॉक्टर साहब? यह कहते-कहते वह रो पड़े और जब डॉक्टर साहब को उनके प्रश्न का उत्तर देने में एक क्षण का विलम्ब हुआ,तब तो उनके प्राण नहों में समा गए। उन्होंने पलङ्ग पर बैठ कर अचेत बालक को गोद में उठा लिया; और बालकों की भाँति सिसक-सिसक कर रोने लगे!! मन्साराम की देह तवे की तरह जल रही थी। मन्साराम ने एक बार आँखें खोलीं। आह! कितनी भयङ्कर और उसके साथ ही कितनी दीन दृष्टि थी! मुन्शी जी ने बालक को कण्ठ से लगा कर डॉक्टर से पूछा -- क्या हाल है साहब,आप चुप क्यों हैं?

डॉक्टर ने सन्दिग्ध स्वर में कहा -- हाल जो कुछ है,वह आप देख ही रहे हैं। १०६ डिग्री का ज्वर है; और मैं क्या बतलाऊँ? अभी ज्वर का प्रकोप बढ़ता ही जाता है। मेरे किए जो कुछ हो सकता है, कर रहा हूँ। ईश्वर मालिक हैं! जब से आप गए हैं, मैं एक मिनिट के लिए भी यहाँ से नहीं हिला। भोजन तक नहीं कर सका। हालत इतनी नाजुक है कि एक मिनिट में क्या हो जायगा, नहीं कहा जा सकता। यह महाज्वर है,बिलकुल होश नहीं है। रह-रह कर डिलीरियम (Delirium) का दौरा सा हो जाता है। क्या घर में इन्हें किसी ने कुछ कहा है! बार-बार अम्माँ जी, तुम कह हो? यही आवाज़ मुँह से निकलती है!

डॉक्टर साहब यह कह ही रहे थे कि सहसा मन्साराम उठ