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निर्मला
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लिए असम्भव था। अगर दैव-गति से यह बीमारी होती, तो वह शान्त हो सकते थे, दूसरों को समझा सकते थे, खुद डॉक्टरों को बुला सकते थे, लेकिन क्या यह जान कर भी वह धैर्य रख सकते थे कि यह सब आग मेरी ही लगाई हुई है ? कोई पिता इतना वज्र-हृदय हो सकता है ? उनका रोम-रोम इस वक्त उन्हें । धिक्कार रहा था। उन्होंने सोचा, मुझमें यह दुर्भावना उत्पन्न ही क्यों हुई ? मैंने क्यों बिना किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के ऐसी भीषण कल्पना कर डाली ? अच्छा, मुझे उस दशा में क्या करना चाहिए था ? जो कुछ उन्होंने किया, उसके सिवा वह और क्या करते इसका वह निश्चय न कर सके । वास्तव में विवाह के बन्धन में पड़ना ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारना था। हाँ, यही सारे उपद्रव की जड़ है!

मगर मैंने यह कोई अनोखी बात नहीं की। सभी स्त्री-पुरुष विवाह करते हैं । उनका जीवन आनन्द से कटता है। आनन्द की इच्छा से ही तो हम विवाह करते हैं। इसी मुहल्ले में सैकड़ों आदमियों ने दूसरी, तीसरी, चौथी यहाँ तक कि सातवीं शादियाँ की हैं; और मुझसे भी कहीं अधिक अवस्था में ! वह जब तक जिये आराम ही से जिये। यह भी नहीं हुआ कि सभी स्त्री से पहले मर गए हों। दुहाज-तिहाज होने पर भी कितने ही फिर रँडुवे हो गए । अगर मेरी जैसी दशा सब की होती, विवाह का नाम ही कौन लेता ? मेरे पिता जी ही ने पचपनवें वर्ष में विवाह किया था और मेरे जन्म के समय उनकी अवस्था साठ से कम न