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ग्यारहवाँ परिच्छेद
 

थी। हाँ, इतनी वात ज़रूर है कि तब और अब में कुछ अन्तर हो गया है। पहले स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी न होती थीं। पति चाहे कैसा ही हो,उसे पूज्य समझती थीं या यह बात हो कि पुरुष सब कुछ देख कर भी बेहयाई से काम लेता हो;अवश्य यही बात है। जब युवक वृद्धा के साथ प्रसन्न नहीं रह सकता,तो युवती क्यों किसी वृद्ध के साथ प्रसन्न रहने लगी? लेकिन मैं तो कुछ ऐसा बुड्ढा न था। मुझे देख कर कोई चालीस से अधिक नहीं बता सकता। कुछ भी हो,जवानी ढल जाने पर नवान औरत से विवाह करके कुछ न कुछ वेहयाई जरूर करनी पड़ती है। इसमें सन्देह नहीं! स्त्री स्वभाव से लज्जाशीला होती है। कुलटाओं की बात तो दूसरी है; पर साधारणतः स्त्री पुरुष से कहीं ज्यादा संयमशीला होती है। जोड़ का पति पाकर वह चाहे पर-पुरुष से हँसी-दिल्लगी कर ले; पर उसका मन शुद्ध रहता है। वेजोड़ विवाह हो जाने से वह चाहे किसी की ओर आंखें उठा कर न देखे,पर उसका चित्त दुखी रहता है। वह पक्की दीवार है,उसमें सबरी का असर नहीं होता। यह कच्ची दीवार है और उसी वक्त तक खड़ी रहती है,जब तक उस पर सबरी न चलाई जाय!

इन्हीं विचारों में पड़े-पड़े मुन्शी जी को एक झपकी आ गई। मन के भावों ने तत्काल स्वप्न का रूप धारण कर लिया। क्या देखते हैं कि उनकी पहली बी मन्साराम के सामने खड़ी कह रही हैस्वामी, यह तुमने क्या किया? जिस बालक को मैंने अपना रक्त पिला-पिला कर पाला,उसको तुमने इतनी निर्दयता से मार डाला|