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तेरहवाँ परिच्छेद
 

जिन्होंने मन्साराम की दवा की थी,याराना हो गया था। वेचारे कभी-कभी आकर मुन्शी जी को समझाया करते,कभी-कभी अपने साथ हवा खिलाने के लिए खींच ले जाते!उनकी स्त्री भी दो-चार बार निर्मला से मिलने आई थी। निर्मला भी कई बार उनके घर हो आई थी;मगर वहाँ से जब वह लौटती,तो कई दिन तक उदास रहती।उस दम्पति का सुखमय जीवन देख कर उसे अपनी दशा पर दुःख हुए बिना न रहता था। डॉक्टर साहव को कुल २००मिलते थे;पर इतने ही में दोनों आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे। घर में केवल एक महरी थी,गृहस्थी का बहुत सा काम स्त्री को अपने ही हाथों करना पड़ता था। गहने भी उसकी देह पर बहुत कम थे;पर उन दोनों में वह प्रेम था,जो धन की तृण वरावर पर्वाह नहीं करता! पुरुष को देख कर स्त्री का चेहरा खिल उठता था। स्त्री को देख कर पुरुप निहाल हो जाता था। निर्मला के घर में धन इससे कहीं अधिक था-आभूषणों से उसकी देह फटी पड़ती थी-घर का कोई काम उसे अपने हाथ से न करना पड़ता था; पर निर्मला सम्पन्न होने पर भी अधिक दुखी थी;और सुधा विपन्न होने पर भी सुखी! सुधा के पास कोई ऐसी वस्तु थी,जो निर्मला के पास न थी;जिसके सामने उसे अपना वैभव तुच्छ जान पड़ता था। यहाँ तक कि वह सुधा के घर गहने पहन कर जाते शरमाती थी!

एक दिन निर्मला डॉक्टर साहब के घर आई,तो उसे बहुत उदास देख कर सुधा ने पूछा-बहिन,आज बहुत उदास हो,वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है न?

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