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निर्मला
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निर्मला-क्या कहूँ सुधा!उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है-कुछ कहते नहीं बनता-न जाने ईश्वर को क्या मन्जूर है?

सुधा-हमारे बाबू जी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जल-वायु बदलने के लिए जाना जरूरी है,नहीं तो कोई भयङ्कर रोग खड़ा हो जायगा। कई बार वकील साहब से कह भी चुके हैं;पर वह यही कह दिया करते हैं कि मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ-मुझे कोई शिकायत नहीं। आज तुम कहना!

निर्मला-जब डॉक्टर साहब की नहीं सुनते,तो मेरी क्या सुनेंगे?

यह कहते-कहते निर्मला की आँखें डबडबा गई;और वह शङ्का, जो इधर महीनों से उसके हृदय को विकल करती रहती थी,मुंह से निकल पड़ी। अब तक उसने उस शङ्का को छिपाया था;पर अब न छिपा सकी। बोली-बहिन,मुझे तो लक्षण कुछ अच्छे नहीं मालूम होते! देखें,भगवान् क्या करते हैं?

सुधा-तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना कि कहीं जल-वायु बदलने चलिए। दो-चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बातें भूल जाएँगी। मैं तो समझती हूँ,शायद मकान बदल डालने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायगा। तुम कहीं बाहर जा भी तो न सकोगी! यह कौन सा महीना है?

निर्मला-आठवाँ महीना बीत रहा है। यह चिन्ता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए ईश्वर से कभी