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निर्मला
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कुछ रुपये कर्ज लेकर एक गाँव रहन रक्खा था।उन्हें आशा थी कि साल आध साल में यह रुपये पटा देंगे।फिर दस-पाँच साल में उस गाँव पर भी कब्जा कर लेंगे। वह जमींदार असल और सूद के कुछ रुपये अदा करने में असमर्थ हो जायगा। इसी भरोसे पर मुन्शी जी ने वह मामला किया था। गाँव बहुत बड़ा था-चार-पाँच सौ रुपया नफा होता था;लेकिन मन की सोची मन ही में रह गई । मुन्शी जी दिल को बहुत समझाने पर भी कचहरी न जा सके । पुत्र-शोक ने उनमें कोई काम करने की शक्ति ही नहीं छोड़ी! कौन ऐसा हृदय-शून्य पिता है जो अपने पुत्र की गर्दन पर तलवार चला कर चित्त को शान्त करले?

महाजन के पास जब साल भर तक सूद न पहुँचा; और न उसके बार-बार बुलाने पर मुन्शी जी उसके पास गये यहाँ तक कि पिछली बार उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि हम किसी के गुलाम नहीं हैं; साहू जी जो चाहें करें, तब साहू जी को गुस्सा आ गया। उसने नालिश कर दी। मुन्शी जी पैरवी करने भी न गये । एकतरफ़ा डिग्री हो गई! यहाँ घर में रुपये कहाँ रखे थे? इतने ही दिनों में मुन्शी जी की साख भी उठ गई थी। वह रुपये का कोई प्रवन्ध न कर सके। आखिर मकान नीलाम पर चढ़ गया। निर्मला सौर में थी। यह खबर सुनी, तो कलेजा सन्न सा हो गया! जीवन में और कोई सुख न होने पर भी धनाभाव की चिन्ताओं से मुक्त थी! धन मानव-जीवन में अगर सर्व-प्रधान वस्तु नहीं, तो वह उसके वहुत निकट की वस्तुअवश्य है। अब और