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चौदहवां परिच्छेद
 

सहसा रुक्मिणी भी आ गई। मुन्शी जी को देखते ही बोली--देखो बाबू,मन्साराम है कि नहीं? वही आया है! कोई लाख कहे,मैं न मानेंगी,साफ मन्साराम है। साल भर के लगभग हो भी तो गया।

मुन्शी जी-बहिन,एक-एक अङ्ग मिलता है! वस,भगवान् ने मुझे मेरा मन्साराम दे दिया। (शिशु से) क्यों री,तू मन्साराम ही है? छोड़ कर जाने का नाम न लेना,नहीं फिर खीच लाऊँगा! कैसे निष्ठुर होकर भागे थे। नाजिर पकड़ लाया कि नहीं? बस कह दिया,अब मुझे छोड़ कर जान का नाम न लेना। देखो बहिन, कैसा टुकुर-टुकुर ताक रही है?

उसी क्षण मुन्शी जी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरू कर दिया। मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा। मानव-जीवन! तू कितना क्षण-भद्र है;पर तेरी कल्पनाएँ कितनी दीर्घायु! वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रहे थे,जो रात-दिन मृत्यु का आवाहन किया करते थे,तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुँचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पॉव मार रहे हैं।

मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुंचा है?