सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/१८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१७८
 

कृष्णा ने हँस कर कहा-वहाँ मालिकिन थी कि नहीं। मालिकिन को दुनिया भर की चिन्ताएँ रहती हैं,भोजन कब करें?

निर्मला-नहीं अम्माँ, वहाँ का पानी मुझे रास नहीं आता-तबीयत भारी रहती है।

माता-वकील साहब न्यौते में आएंगे न? तब पूछूंगी कि आपने फूल सी लड़की ले जाकर उसकी यह गत बना डाली। अच्छा, अब यह बता कि तूने यहाँ रुपए क्यों भेजे थे? मैंने तो तुझसे कभी न माँगे थे। लाख गई-गुजरी हूँ लेकिन बेटी का धन खाने की नीयत नहीं!

निर्मला ने चकित होकर पूछा-किसने रुपए भेजे थे? अम्माँ! मैंने तो नहीं भेजे!

माता-झूठ न बोल! तूने ५००) के नोट नहीं भेजे थे?

कृष्णा-भेजे नहीं थे,तो क्या आसमान से आगए? तुम्हारा नाम साफ लिखा था। मोहर भी वहीं की थी।

निर्मला-तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ, मैंने रुपए नहीं भेजे। यह कब की बात है?

माता-अरे यही दो-ढाई महीने हुए होंगे। मगर तूने नहीं भेजे,तो आए कहाँ से?

निर्मला यह मैं क्या जानूँ? मगर मैंने रुपए नहीं भेजे। हमारे यहाँ तो जब से जवान बेटा मरा है, कचहरी ही नहीं जाते। मेरा हाथ तो आप ही तङ्ग था, रुपए कहाँ से आते?

माता-यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! वहाँ और कोई