पृष्ठ:निर्मला.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१९०
 

विवाह तो करना नहीं, जरा सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहाँ होते तो मैं तुन्हें आज्ञा दिला देती!

सुधा-जो लोग हदय के उद्धार होते हैं,क्या चरित्र के भी अच्छे होते हैं? पराई बी को घूरने में तो किसी मर्द को सङ्कोच नहीं होता।

निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी,घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा; बस,अब तो राजी हुई।

इतने में कृष्ण आकर बैठ गई। निर्मला ने मुस्करा कर कहा तब बत्ता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?

कृष्णा-जीजा जी बुला रहे हैं,पहले जाकर सुन आओ, पीछे गपे लड़ाना। बहुत बिगड़ रहे हैं।

निर्मला क्या है, तूने कुछ पूछा नहीं?

कृष्णा-कुछ बीमार से मालूम होते हैं। बहुत दुबले हो गए हैं।

निर्मला--तो जरा बैठ कर उनका मन बहला देती, यहाँ दौड़ी क्या चली आई। यह कहो ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुष तुझे भी मिलता! जरा बैठ कर बातें तो करो। बुड्ढे वाते बड़ी लच्छेदार करते हैं। जबान इतने डीगियल नहीं होते!

कृष्णा नहीं बहिन,तुम जाओ; मुझसे दो वहाँ नहीं बैठा जाता।

निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा-अब तो बारात आ गई होगी। द्वार-पूजा क्यों नहीं होती?