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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१९७

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निर्मला
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निर्मला-नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार हैं, वही है।

शास्त्री जी-तो फिर और किसे बता दे? वही तो हैं ही।

नाई-घड़ी भर से कह रहा हूँ; पर बहिन जी मानती ही नहीं। निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद और कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा-अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र-खेल रही थीं। मैं जानती तो तुम्हें यहाँ बुलाती ही नहीं। ओफ्कोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा!! तुम महीनों से मेरे साथ यह शरारत करती चली आती हो; और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुँह से नहीं निकला । मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती।

सुधा-तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहाँ आती ही क्यों? '

निर्मला-गज़ब रे गज़ब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूँ। तुम्हारे ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखी कृष्णा तूने अपनी जेठानी की शरारत? यह ऐसी मायाविनी हैं, इनसे डरती रहना!

कृष्णा-मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढ़ाऊँगी। धन्य भाग कि उनके दर्शन हुए?

निर्मला-अब समझ गई। रुपए भी तुम्हीं ने भेजवाए होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूँ, मार बैठूँगी।

सुधा-अपने घर बुला कर मेहमान का अपमान नहीं किया जाता।