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सोलहवाँ परिच्छेद
 

नाई-अरे वहिन जी, क्या इतना भूल जाऊँगा? अभी तो जल-पान का सामान दिए चला आता हूँ।

निर्मला-अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं, मेरे पड़ोस में रहते हैं।

नाई-हाँ हाँ, वही तो डॉक्टर साहब हैं।

निर्मला ने सुधा की ओर देख कर कहा-सुनती हो बहिन इसकी बातें?

सुधा ने हँसी रोक कर कहा-झूठ बोलता है।

नाई-अच्छा साहब, झूठ ही सही; अब बड़ों के मुँह कौन लगे। अभी शास्त्री जी से पुछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?

नाई के आने में देर हुई, तो मोटेराम ख़ुद आँगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्याद रखना ईश्वर ही के हाथ है। नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपए नहीं मिले।

निर्मला-जरा यहाँ चले आइएगा; शास्त्री जी? कितने रुपए दरकार हैं, निकाल दूँ?

शास्त्री जी भुनभुनाते और ज़ोर-ज़ोर से हाँफते हुए ऊपर आए; और एक लम्बी साँस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है। जल्दी से रुपए निकाल दो।

निर्मला-लीजिए, निकाल तो रही हूँ। अब क्या मुँह के, वल गिर पड़ें। पहले यह बताइए कि दूल्हा के बड़े भाई कौन हैं।

शास्त्री जी-राम-राम, इतनी सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया। नाई क्या न पहचानता था?

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