पृष्ठ:निर्मला.djvu/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७
दूसरा परिच्छेद
 


आती, तो मन होता--घर को तिलाञ्जली देकर चली जाऊँ; लेकिन बच्चों का मुँह देखती, तो वात्सल्य से चित्त गद्गद् हो जाता। बच्चों को किस पर छोड़ कर जाऊँ! मेरे इन लाल को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे। कौन प्रातःकाल इन्हें दूध और हलवा खिलाएगा; कौन इनकी नींद सोएगा, इनकी नींद जागेगा? वेचारे कौड़ी के तीन हो जाएँगे। नहीं प्यारो, मैं तुम्हें छोड़ कर न जाऊँगी। तुम्हारे लिए सब कुछ सह लूँगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खोटी-खरी, घुड़की-झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूँगी।

कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी; पर बाबू साहब को नींद न आई। उन्हें चोट करने वाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थीं। उफ! यह मिजाज! मानो मैं ही इनकी स्त्री हूँ! बात मुँह से निकालनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूँ। घर में अकेली यह रहें; और वाकी जितने अपने-वेगाने हैं, सब निकाल दिए जायें। जला करती हैं। मनाती हैं कि यह किसी तरह मरे, तो मैं अकेली आराम करूँ। दिल की बात मुँह से निकल ही आती है, चाहे कोई कितना ही छिपाए। कई दिन से देख रहा हूँ, ऐसी जली-कटी सुनाया करती हैं। मैके का घमण्ड होगा; लेकिन वहाँ कोई वात भी न पूछेगा। अभी सवआवभगत करते हैं। जबजाकर सिर पड़ जायँगी, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा। रोती हुई आएँगी। वाह रे घमण्ड,सोचती हैं--मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूँ। अभी चार दिन को कहीं चला जाऊँ, तो मालूम हो। तव देवू क्या करती हैं? बस, चार दिन ही में तो मालूम हो जायगा। सारी शेखी किरकिरी।