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सत्रहवाँ परिच्छेद
 

देखकर कही वह चिल्ला कर रो नपड़ें! पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था। वह एक क्षण के लिए भी निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाय!

निर्मला ने कहा-बहिन, अब जो होना था वह तो हो ही चुका; अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे, अम्मां कहती थीं।

सुधा ने सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा-कौन मुँह लेकर उनके पास जाऊँ? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरे पाँव न थर्राने लगें और मैं गिर न पड़ूं!

निर्मला-चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें सँभाले रहूँगी।

सुधा-मुझे छोड़ कर भाग तो न आ ओगी?

निर्मला-नहीं-नहीं, भागेंगी नहीं।

सुधा-मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर वजृपात होने पर भी बैठी हूँ, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है! सोहन को वह बहुत प्यार करते थे; बहिन! न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप ही रोती रहूँगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?

निर्मला-हाँ, अम्माँ जी कहती थीं, छुट्टी नहीं ली है। दोनों सहेलियाँ मर्दाने कमरे की ओर चली; लेकिन कमरे के द्वार पर पहुँच कर सुधा ने निर्मला को विदा कर दिया। अकेली कमरे में दाखिल हुई।

डॉक्टर साहव घवरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा