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सत्रहवाँ परिच्छेद
 

सुधा की आँखों में कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन में हाथ डाल कर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी; लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सान्त्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्षस्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का सञ्चार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अञ्चल की आड़ में आ गया हो!

डॉक्टर साहब ने रमणी के अनु-सिञ्चित कपोलों को दोनों हाथों में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था; फिर वह क्यों बैठा रहता। जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है। लेकिन पवन के प्रवल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भॉति प्रणय भी दुख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी में साथ हँसने वाले बहुतेरे मिल जाते हैं। रज में जो साथ रोये, वही हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीव हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जाने? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया।आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरूप देखा है!

सुधा ने सिसकते हुए कहा-मैं नज़र के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी नहीं देखने पाए!! न जाने इन दिनों उसे इतनी समझ कहाँ से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने कष्ट भूल कर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मेरे लाडले की आँखें बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाई।