बोली-बेटा अपने बराबर का हो गया, तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए।
मुन्शी जी ने ओंठ चबा कर कहा-मैं इसे घर से निकाल कर छोडूंगा। भीख माँगे या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं।
रुक्मिणी-नाक किसकी कटेगी?
मुन्शी-इसकी चिन्ता नहीं।
निर्मला-मैं जानती कि मेरे आने से यह तूफान खड़ा हो जायगा, तो भूल कर भी न आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए। इस घर में मुझसे रहा न जायगा।
रुक्मिणी-तुम्हारा बहुत लिहाज़ करता है बहू! नहीं, तो आज अनर्थ ही हो जाता।
निर्मला-अब और क्या अनर्थ होगा दीदी जी? मैं तो फूंक-फूंक कर पाँव रखती हूँ; फिर भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर में पाँव रखते देर नहीं हुई; और यह हाल हो गया। ईश्वर ही कुशल करें।
रात को भोजन करने कोई न उठा। अकेले मुन्शी जी ने खाया। निर्मला को आज एक नई चिन्ता हो गई थी-जीवन कैसे पार लगेगा? अपना ही पेट होता, तो विशेष चिन्ता न थी। अब तो एक नई विपत्ति गले पड़ गई थी। वह सोच रही थी-मेरी बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम?