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पृष्ठ:निर्मला.djvu/२३०

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बीसवाँ परिच्छेद

चिन्ता में नींद कब आती है! निर्मला चारपाई पर पड़ी करवटें बदल रही थी। कितना चाहती थी कि नींद आ जाय; पर नींद ने आने की कसम सी खाली थी। चिराग बुझा दिया था, खिड़की के दरवाजे खोल दिये थे, टिक-टिक करने वाली घड़ी भी दूसरे कमरे में रख आई थी; पर नींद का नाम न था। जितनी बातें सोचनी थीं, सब सोच चुकी-चिन्ताओं का भी अन्त हो गया; पर पलकें न झपकी, तब उसने फिर लैम्प जलाया; और एक पुस्तक पढ़ने लगी। दो ही चार पृष्ठ पढ़े होंगे कि झपकी आ गई। किताब खुली रह गई।

सहसा जियाराम ने कमरे में कदम रक्खा। उसके पाँव थर-थर काँप रहे थे। उसने कमरे में ऊपर-नीचे देखा। निर्मला सोई हुई थी,उसके सिरहाने ताक पर एक छोटा-सा पीतल का सन्दूकचा रक्खा हुआ था। जियाराम दबे पाँव गया, धीरे से सन्दूकचा उतारा और बड़ी तेजी से कमरे के बाहर निकला! उसी वक्त निर्मला की आँखें खुल