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इक्कीसवाँ परिच्छेद
 

क्रोध और क्षोभ से कातर हो उठा। वह कौन मुँह लेकर लौटाने जाय। बनिया साफ कह देगा-मैं नहीं लौटाता। तब वह क्या करेगा? आसपास के दस-पाँच बनिये और सड़क पर चलने वाले आदमी खड़े हो जायँगे। उन सभों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। बाजार में यों ही कोई बनिया उसे जल्द सौदा नहीं देता, वह किसी दूकान पर खड़ा नहीं होने पाता। चारों ओर से उसी पर लताड़ पड़ेगी। उसने मन ही मन झुँझला कर कहा--पड़ा रहे घी, मैं लौटाने न जाऊँगा।

मातृ-विहीन बालक के समान दुखी, दीन प्राणी संसार में दूसरा नहीं होता। और सारे दुख भूल जाते हैं, बालक को माता की याद कभी नहीं भूलती। सियाराम को इस समय माता की याद आई। अम्माँ होती तो क्या आज मुझे यह सब सहना पड़ता। भैया भी चले गए,जियाराम भी चले गए, मैं ही अकेला यह विपत्ति सहने के लिए क्यों बच रहा? सियाराम की आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। उसके शोक-कातर कण्ठ से एक गहरे निश्वास के साथ मिले हुए ये शब्द निकल आए-अम्माँ! तुम मुझे क्यों भूल गई, क्यों मुझे नहीं बुला लेतीं।

सहसा निर्मला फिर कमरे की तरफ आई। उसने समझा था सियाराम चला गया होगा। उसे बैठे देखा तो गुस्से से बोली-तुम अभी तक बैठे ही हो? आखिर खाना कब बनेगा?

सियाराम ने ऑखें पोंछ डाली। बोला-मुझे स्कूल जाने को, देर हो जायगी।