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निर्मला
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भेजा। भुङ्गी पर उसका विश्वास न था,उससे अब कोई सौदा न मँगाती थी। सियाराम में काट-कपट की आदत न थी। आने के पौने करना न जानता था। प्रायः बाजार का सारा काम उसी को करना पड़ता। निर्मला एक-एक चीज़ को तोलती,जरा भी कोई चीज़ तोल में कम पड़ती, तो उसे लौटा देती। सियाराम का, बहुत सा समय इसी लौटा-फेरी में बीत जाता था। बाजार वाले उसे जल्दी कोई सौदा न देते। आज भी वही नौबत आई। सियाराम अपने विचार से तो बहुत अच्छा घी, कई दूकान देख कर लाया;लेकिन निर्मला ने उसे सूँघते ही कहा-घी खराब है। लौटा आओ।

सियाराम ने झुँझला कर कहा-इससे अच्छा घी बाजार में नहीं है, मैं सारी दूकानें देख कर लाया हूँ?

निर्मला-तो मैं झूठ कहती हूँ।

सिया-यह मैं नहीं कहता, लेकिन बनिया अब घी वापिस न लेगा। उसने मुझसे कहा था, जिस तरह देखना चाहो, यहीं देखो; माल तुम्हारे सामने है। बोहनी-बट्टे के वक्त मैं सौदा वापिस न लूंगा। मैं ने सूंघ कर,चख कर देख लिया। अब किस मुँह से लौटाने जाऊँ?

निर्मला ने दाँत पीस कर कहा-घी में साफ चरबी मिली हुई है; और तुम कहते हो घी अच्छा है। मैं इसे रसोई में न ले जाऊँगी, तुम्हारा जी चाहे लौटा दो चाहे खा जाओ।

घी की हाँडी वहीं छोड़ कर निर्मला घर में चली गई। सियाराम