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इक्कीसवॉ परिच्छेद
 

थी। उसे देख कर साधारण बुद्धि का मनुष्य भी अनुमान कर सकता था कि यह अनाथ है।

सियाराम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था,आने वाले संग्राम के भय से उसकी हृदय-गति बढ़ती जाती थी। उसने निश्चय किया-बनिये ने घी न लौटाया,तो वहां;घी वहीं छोड़ कर चला आएगा। मखमार कर वनिया आप ही बुलावेगा। बनिये को डाटने के लिए भी उसने शब्द सोच लिए। वह कहेगा-क्यों साह जी, आँखों में धूल झोंकते हो? दिखाते हो चोखा माल और देते हो रद्दी माल? पर यह निश्चय करने पर भी उसके पैर आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थे। वह यह न चाहता था कि बनिया उसे आता हुआ देखे, वह अकस्मात ही उसके सामने पहुँच जाना चाहता था। इसलिए वह चक्कर काट कर ।दूसरी गली से बनिये की दूकान पर गया।

बनिये ने उसे देखते ही कहा-हमने कह दिया था, हम सौदा वापिस न लेंगे। बोलो कहा था कि नहीं?

सियाराम ने बिगड़ कर कहा-तुमने वह घी कहाँ दिया, जो दिखाया था? दिखाया एक माल, दिया दूसरा माल; लौटाओगे कैसे नहीं? क्या कुछ राहजनी है?

साह-इससे चोखा घी बाजार में निकल आवे,तो जरीबाना दूं। उठा लो हाँडी और दो-चार दूकान देख आओ।

सिया-हमें इतनी फुर्सत नहीं है। अपना घी लौटा लो।

साह-घी न लौटेगा।

बनिये की दूकान पर एक जटाधारी साधु बैठा हुआ यह तमाशा