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पृष्ठ:निर्मला.djvu/२५३

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निर्मला
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देख रहा था। उठ कर सियाराम के पास आया;और हाँडी का घी सूंघ कर बोला-बच्चा,धी तो बहुत अच्छा मालूम होता है।


साह ने शह पाकर कहा-बाबाजी,हम लोग तो आपही इनको घटिया सौदा नहीं देते। खराब माल क्या जाने-सुने गाहकों को दिया जाता है?

साधु-घी ले जाव बच्चा, बहुत अच्छा है।

सियाराम रो पड़ा। घी को बुरा सिद्ध करने के लिए उसके पास अक क्या प्रमाण था? बोला-वही तो कहती हैं घी अच्छा नहीं है; लौटा आओ। मैं तो कहता था घी अच्छा है।

साधु-कौन कहता है?

साह-इनकी अम्माँ कहती होंगी। कोई सौदा उनके मन ही नहीं भाता। बेचारे लड़के को बार-बार दौड़ाया करती हैं! सौतेली माँ हैं न! अपनी माँ हो तो कुछ ख्याल भी करे। साधु ने सियाराम को सदय नेत्रों से देखा; मानो उसे त्राण देने के लिए उसका हृदय विकल हो रहा है। तब करुण स्वर में बोला-तुम्हारी माता का स्वर्गवास हुए कितने दिन हुए बच्चा?

सियाराम-छठा साल है।

साधु-तब तो तुम उस वक्त बहुत ही छोटे रहे होगे। भगवान् तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। इस दुधमुंहे बालक को तुमने मातृ-प्रेम से वञ्चित कर दिया। बड़ा अनर्थ करते हो;भगवान्! हा,छः साल का बालक और राक्षसी विमाता के पाले पड़े!धन्य हो दयानिधि! साह जी,बालक पर दया करो-धी लौटा लो;नहीं तो