वृक्ष की छांह में बैठा रहता या पल्टनों की कवायद देखता। तीन बजे घर लौट आता।आज भी वह घर से चला;लेकिन बैठने में उसका जी न लगा-उस पर अतें अलग जल रही थीं। हा!अब उसे रोटियों के भी लाले पड़ गए। दस बजे क्या खाना न बन सकता था। माना कि बाबू जी चले गए थे। क्या मेरे लिए घर मे दो-चार पैसे भी न थे?अम्मॉ होती,तो इस तरह बिना कुछ खाए-पिए आने देती? मेरा अब कोई नहीं रहा!
सियाराम का मन बाबा जी के दर्शनों के लिए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा-इस वक्त वह कहाँ मिलेंगे? कहाँ चल कर दस? उनकी मनोहर वाणी,उनकी उत्साह-प्रद सान्त्वना उसके मन को खींचने लगी। उसने आतुर होकर कहा-मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घर पर मेरे लिए क्या रक्खा था?
वह आज यहाँ से चला,तो घर न जाकर सीधा घी वाले साह जी की दुकान पर गया। शायद बाबा जी से वहाँ मुलाक़ात हो जाय। पर वहाँ बाबा जी न थे। बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा लौट आया।
घर आकर बैठा ही था कि निर्मला ने आकर कहा-आज देर कहाँ लगाई। सवेरे खाना नहीं बना,क्या इस वक्त भी उपवास होगा। जाकर बाजार से कोई तरकारी लाओ।
सियाराम ने झल्ला कर कहा-दिन भर का भूखा चला आता हूँ, कुछ पानी पीने तक को नहीं लाई। ऊपर से बाजार जाने का हुक्म दे दिया। मैं नहीं जाता बाजार! किसी का नौकर
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